भारतीय युवाओं की समस्या- बेरोजगारी

 


भारतीय युवाओं की समस्या- बेरोजगारी

The issue of indian youth- unemployment


बेरोजगारी



भारतीय युवाओं की समस्या- बेरोजगारी

The issue of indian youth- unemployment



किसी भी देश के युवाओं के लिए 'बेरोजगारी' से बड़ी समस्या कोई नहीं हो सकती। भारत भी उन देशों की कतार में शीर्ष पर शामिल है। भारतीय युवाओं की समस्या - बेरोजगारी किसी बेरोजगारी भत्ता देने से कम नहीं होगी।न ही कम होगी जिम्मेदारों का उनके लिए झूठे वादे करने से। भारतीय युवाओं की बेरोजगारी की समस्या सिर्फ उनकी अपनी समस्या नहीं है बल्कि यह एक राष्ट्रीय समस्या है। सरकारों ने कभी भी बेरोजगारी की इस गंभीर समस्या को गंभीरता से लिया ही नहीं। उनको हमेशा एक वोट बैंक के नजरिये से देखा गया। आज बेरोजगारी दर बड़ी तेजी से बढ़ती ही जा रही है। 

हजारों बेरोजगार युवाओं के पास जब रिक्त स्थानों के रोजगारों के फार्म निकलते हैं तो फार्म फीस भरने लायक पैसे तक नहीं होते।फिर भी भरते हैं, प्रायः अधिकांश फ़ार्म कुछ दिनों पश्चात् रद्द ही कर दिए जाते हैं। इस स्थिति में उन युवाओं का क्या जिन्होंने कहीं से उधार लेकर या किसी अन्य माध्यम से पैसे इकठ्ठा करके आवेदन किया था। यह सरकार की ज्यादती नहीं है क्या? यदि नहीं तो ईमानदारी दिखते हुए निरस्त हुए आवेदन की फीस वापस कर देनी चाहिए। 

एक बेरोजगार युवा के साथ उसका परिवार भी चिंता में रहता है। पूछिए उस पिता से जिसने पेट काट कर अपने बच्चे को पढ़ाया इस उम्मीद में कि एक दिन वह नौकरी करके परिवार को सहारा देगा। लेकिन लगता है सियासत के दिल होता ही नहीं।    


भारतीय युवाओं की समस्या- बेरोजगारी

The issue of indian youth- unemployment


हिंदी कविता


दंश खालीपन का,

कचोटता है हर घड़ी,

जिंदगी भी आजकल,

वीरानियों से है भरी।


स्वप्न हुए अब बोझिल से,

जिम्मेदारी के सैलाब बहे,

हुनर हुआ अब शापित सा,

वीरानी अब अहबाब कहें।


घर की हुई खत्म उम्मीदें,

अब सामाजिक मखौल बने,

स्वप्न हमारे भी है चाहें,

कब भारत का सिरमौर बने।


हरियाली से भरे बगीचे,

मैं पतझर की बहार हूं।

भय ने डेरा मन में घेरा,

मैं जीत नहीं बस हार हूँ,


खुश रहना और खुश रखना,

तो कबका भूल चुका हूँ मैं,

जटिल व्यवस्था से टकराकर,

कब का टूट चुका हूँ मैं।


कुपित कपालों पर छाई,

दीन-हीन सी लाली है,

काले घबराहट के साये,

जिम्मेदारी की डाली है।


मन सूखे हैं तन सूखे हैं,

जीवन के हर पल सूने हैं,

दावे-वादे सत्ताओं के,

मेरी खातिर हर दर सूने हैं।


भरी विषमताओं के चलते,

जीवन में अब कुछ न सूझे,

कब रोजगार की हरियाली,

जिमेदारी का मन पूछे।


समाज के कपाल पर,

बदनुमा सा दाग हूँ,

सत्ताओं का शिकार हूँ,

हाँ, मैं बेरोजगार हूँ।

                 सचिन 'निडर'



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