लॉकडाउन और अकेलापन
जो लोग लॉकडाउन में दुसरे शहरों में हैं, अपने परिवार, बच्चों से दूर, अकेले, उन सभी को समर्पित,,,,,,,
लॉकडाउन और अकेलापन
अकेलापन कविता...
लड़ रहा हूँ खुद से, दूर अपनों से रहकर,
पंहुचा दे घर, कोई सपनों से कहकर।
नीर हैं नयन में, कोई देखता नहीं है,
पीर भी ह्रदय की, कोई पूछता नहीं है।
हो रहा हूँ विकल, बंद कमरों में रहकर,
पंहुचा दे घर, कोई सपनों से कहकर।
लड़ रहा हूँ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
पलकें बंद करूँ तो, सबके ही चेहरे आएं,
कभी वेदनाएं, कभी भूख है छुपाये।
टूटता सा जा रहा हूँ, खुद में ही रहकर,
पंहुचा दे घर, कोई सपनों से कहकर।
लड़ रहा हूँ ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
बोझ जिम्मेदारियों का, कैसे अब उठायें,
बच्चों की सिसकारियां है, चिंता ये सताये।
खुद में सिमट जा रहें हैं, खुद से ही डरकर
पंहुचा दे घर, कोई सपनों से कहकर।
लड़ रहा हूँ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
चल दिए हैं पाँव, स्वयं अपनों से मिलने,
हौसलें भी लगे हैं, अब तो शिथिल पड़ने
घर को हैं जरूरतें, ये समझाया थककर
पंहुचा दे घर, कोई सपनों से कहकर।
लड़ रहा हूँ ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
संग छोड़ रही हैं, अब तो हमारी साँसें,
कैसे पहुंचे घर रब, ही तो मेरा जाने।
मैं ठहरा परदेस, चंद लम्हे समझकर
पंहुचा दे घर, कोई सपनों से कहकर।
लड़ रहा हूँ ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
सचिन 'निडर'



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