भारतीय राजनीति का कटु सत्य
भारतीय राजनीति का कटु सत्य
भारतीय राजनीति का कटु सत्य
भारतीय राजनीति का कटु सत्य से आप सभी अच्छी तरह से परिचित ही होगें। और भारतीय राजनीति के कटु सत्य से परिचित हों भी क्यों ना, हमारे देश में चाय की दुकानों से लेकर ऑफिसों तक में हर जगह राजनैतिक चर्चाएं होती ही रहतीं हैं, यहाँ तक कि वैश्विक स्तर तक की राजनैतिक चर्चाएं। और होनी भी चाहिए। वैसे तो हर कोई राजनैतिक सच्चाइयों को जानता भी है एवं मानता भी है। भारतीय राजनीति की कुछ कड़वी सच्चाई से आज आपको हम भी रूबरू कराते हैं।
राजनैतिक ज्ञान -
यदि आप भारतीय हैं और राजनीति के बारे में बिलकुल कुछ भी नहीं जानते तो यकीन मानिये की आपका सामाजिक ज्ञान न के बराबर है है। और मैं यह मानने को तैयार भी नहीं हूँ कि किसी भारतीय को राजनैतिक ज्ञान बिलकुल ही न हो। अजी हमारे देश में तो हर दूसरा व्यक्ति स्वयं में ही एक राजनेता से कम नहीं है। भारतीय एवं राजनीति एक दुसरे के पूरक हैं। कभी-कभी तो ऐसा लगता है
कुछ पंक्तियाँ -
वर्षों से संचित कर जोड़ा, भावों की उस उन्मादी में,
विपदा है कीट-पतंगों सी, मिट जाती है उजियारी में।
रंग तिमिर का स्याह हुआ है, अमावस की अंधियारी में,
ना जाने कितने कीट छिपे है, राजनीति की क्यारी में।
(सचिन 'निडर')
निर्भरता -
भारतीय राजनीति, एक ऐसा व्यवसाय जो पूरी तरह से मुनाफे का है। हालांकि बदलते परिदृश्य एवं दौर ने सब कुछ बदल कर रख दिया। जो राजनीति कभी लोकतंत्र पर निर्भर थी आज पूरी तरह झूठ, फरेब, धोखा, चापलूसी, मक्कारी, एवं अपराधों पर निर्भर होकर रह गई। इसके जिम्मेदार सिर्फ हम हैं। जो अपने जनप्रतिनिधि का इतिहास जानते हुए भी अपना वोट लुटा के आ जाते हैं और अगले पांच साल खुद लुटते रहते हैं। आप यदि अनपढ़ हैं या अपराधी हैं तो भले ही कुछ न कर पाएं परन्तु राजनीती आपका 'करियर' हो सकता है।
वोट एवं वोटर -
वोट और जनप्रतिनिधि दोनों बिकने लगे हैं। जिसको हम वोट दे रहें हैं वो साल-दो साल बाद 'देशसेवा' हेतु किस पार्टी की तरफ करवट कर ले कोई भरोसा नहीं। हालांकि ऐसा वो अपने वोटर को समझाते हैं मतलब खुद की सेवा ही होती है। सियासत वेशर्मी की इंतेहा पार कर चुकी है। सच्चाई यह है कि जिसकी लाठी, उसकी भैंस।
जनता -
जनता बहुत जल्दी ही सब भुला देती है। यह राजनीतिक खिलाडी अच्छी तरह से जानते हैं और इसी का फायदा उठाकर साल दर साल हमें बनाते रहते हैं। कोई भी विपदा, आपदा, अव्यवस्थाएं क्यों न हों, भुगतना जनता को ही पड़ता है और सियासतदां आँख,कान मूंदे अगले चुनावी मुद्दे ढूंढते रहते हैं। क्योंकि अब भूख, बेरोजगारी, शिक्षा, मूलभूत आवश्यकताएं, आधारिक संरचना आदि तो मुद्दे हैं ही नहीं।
मुद्दे -
सरकार किसी की भी हो कुछ मुद्दे ऐसे है जो हमेशा ही रहेंगे। जैसे गरीबी, महगाई, भ्रष्टाचार, अपराध, बेरोजगारी आदि। कोई भी सरकार आये-जाए इन सब पर वादे तो बहुत होते हैं पर काम वही ढाक के तीन पात। वर्तमान दौर 'सोशल मीडिया' एवं मार्केटिंग का है, बात मशहूर है कि जो दिखेगा वही बिकेगा।
पार्टी कार्यकर्ता -
कार्यकर्ताओं एवं पदाधिकारियों को अपनी पार्टी के अनुचित एवं अनर्गल कार्यों का न चाहते हुए भी मजबूरी वश समर्थन करना पड़ता है। क्योकि समर्थन नहीं करेगें तो कमाएंगे क्या? घर कैसे चलेगा, आखिर पापी पेट का सवाल जो है। अब सबको पता है कि उनकी कोई तनख्वाह तो होती नहीं, अगर पार्टी सत्ता में आ गई तो विधायक, सांसद की कृपा से वो भी 'ब्रोकर' बन कर के कुछ लाख तो बना ही डालते हैं। जितना बड़ा पद उतनी बड़े स्तर की 'ब्रोकरेज'। पार्टी के सर्वेसर्वा आदि भी सोचते हैं कि कोई नहीं आज तक पार्टी की सेवा की है तो अब लूटने दो जनता को। एक बार कोई काम लेकर इनके पास पहुंच कर तो देखिये। हालांकि कुछ निष्ठावान कार्यकर्ता हैं जो दिन-रात पार्टी की सेवा करते हैं, किन्तु ऐसे कुछ ही हैं। सत्ता मिलते ही कई जगह तो कार्यकर्ताओं तक की सुनवाई नहीं होती। कार्यकर्ता विरोधी पार्टियों के कार्यकर्ताओं से लड़ते रह जाते हैं और उनके माननीय स्वयं की सुविधा हेतु उसी पार्टी में जाने तक से परहेज नहीं करते। तो कार्यकर्ता होना भी हिम्मत का कार्य ही है।
जनता एवं माननीय -
और जनता यानी कि हम लोग भी कमाल के हैं साहब। हमें लगता है कि विधायक जी या सांसद जी या उनके चापलूस, छुटभैये गवाँर माननीय जी हम से अधिक सम्मानित हैं। अरे! आप यह क्यों भूल जाते हैं कि आपके वोट ने ही उन्हें ये बनाया है, जो वह हैं। हमारे टैक्स के पैसों से वो जीते हैं, उनके पैसों पर हम नहीं। हमारे सेवक हैं वो, हमने उन्हें चुनकर अपने कार्यों को कराने के लिए संसद या विधानसभा भेजा है। सत्ता के नशे में माननीय भी भूल जाते हैं कि हम सिर्फ पांच साल के लिए आये हैं। ऊल-जलूल बयान, अफलातूनी वादे, अजीबोगरीब हरकते, उल्टे-सीधे कार्य। हालांकि गिनती के कुछ नेता आज भी ऐसे हैं जिन्होंने अपना जमीर नहीं बेंचा किन्तु ऐसे सिर्फ गिनती के ही हैं।
आंकड़ें -
सरकार और आंकड़ों की बाजीगरी चलती ही रहती हैं। थोड़ा सा काम करो, विज्ञापनों एवं सोशल मीडिया पर पैसा लुटा कर दिन भर उनका प्रचार करो, बस हो गया। मोटी रकम खर्च करके आई टी सेल ऐसे है तो नहीं रखती हैं पार्टियां। कभी-कभी लगता है कि सरकारें सिर्फ फर्जी आंकड़ों पर निर्भर हैं, जिनका जमीनी हकीकत से दूर-दूर तक कोई सरोकार नहीं होता। हालांकि प्रत्येक सरकार थोड़े-बहुत काम भी कराती हैं किन्तु वह इस लिए कि जनता के सामने अगले चुनावों में प्रस्तुत हो सकें। और यह सिर्फ इसलिए क्योकि भारतीय राजनीती का आधार लोकतान्त्रिक है।
अंत में -
सच्चाई तो यह है कि आधुनिक दौर में राजनीती सेवा तो बिलकुल भी नहीं है। साम, दाम, दंड, भेद करके राजनैतिक पार्टियों को बस कुर्सी चाहिए। वो तो शुक्र मनाइये कि लोकतंत्र एवं संविधान की डोर से राजनीति बंधी हुई है नहीं तो देश की हालत का भगवान् ही मालिक होता।
कुछ पंक्तियाँ समर्पित हैं -
"इस देश की हर एक पार्टी का, लगता है जैसे नारा हो,
खींचो, तोड़ो, फेको इनको, यह जनता जैसे नारा हो।"
दूरी बढ़ती राजनीति से, अब है भरोसा छूट रहा,
भारत के सेवकदारों का, जनता से नाता टूट रहा।
सब एक थाली के चट्टे-बट्टे, एक ही थाली में घूम रहे,
नेता रहते अपनी मस्ती में, बस जनता को चूस रहे।
ना कोई ईमान बचा है, सब लूट-पाट में बाँट रहे,
सबकी है बस यही कहानी, झूठ को सच में बांच रहे।
हम तो सवार हो देख लिए, बेईमानों की इन नावों में,
ईमान डिगे ना अब अपना, सेवक समाज बस बनें रहें।
सचिन 'निडर'
अभी इस लेख में इतना ही।
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