भारत में गरीबी की स्थिति
भारत में गरीबी की स्थिति
भारत एक ऐसा देश है जिसे विश्व आर्थिक शक्ति बनने की दिशा में अग्रसर माना जा रहा है। विश्व बैंक, IMF और नीति आयोग की रिपोर्टें भारत की बढ़ती GDP और तेज़ विकास दर की पुष्टि करती हैं। लेकिन जब इसी भारत की सड़कों, झुग्गी-बस्तियों और ग्रामीण इलाकों में हम जीवन की वास्तविक तस्वीर देखते हैं, तो हमें एक कटु सच्चाई का एहसास होता है – भारत में अब भी करोड़ों लोग गरीबी के गर्त में जीने को मजबूर हैं।
यह विरोधाभास केवल आर्थिक असमानता नहीं है, बल्कि यह भारत की नीति, प्रशासन, सामाजिक व्यवस्था और राजनीतिक दृष्टिकोण पर गंभीर सवाल भी खड़े करता है।
भारत में गरीबी को अक्सर केवल आय की दृष्टि से देखा जाता है – यानी ₹33/दिन (ग्रामीण) और ₹47/दिन (शहरी) से कम कमाने वाले व्यक्ति को गरीब मान लिया जाता है। लेकिन वास्तव में गरीबी इससे कहीं अधिक गहराई रखती है:
- भोजन की कमी
- स्वच्छ पेयजल का अभाव
- अशिक्षा
- स्वास्थ्य सेवाओं की अनुपलब्धता
- रोजगार के अवसरों का अभाव
- सामाजिक सम्मान की कमी
यानी गरीबी एक बहुआयामी समस्या है, जिसे केवल "कम आमदनी" के नजरिए से देखना एक संकीर्ण सोच है।
भारत में गरीबी की स्थिति: आंकड़ों की जुबानी
वर्ष | गरीबी दर (%) | स्रोत |
---|---|---|
2004–05 | 37.2% | NSSO |
2011–12 | 21.9% | योजना आयोग |
2020* | 27–28% (अनुमानित) | विश्व बैंक |
2023–24* | ~12.5% (अनुमान) | नीति आयोग |
- नीति आयोग के अनुसार, 2014 से 2022 के बीच लगभग 24.82 करोड़ लोग बहुआयामी गरीबी से बाहर आए हैं।
- NFHS-5 (2019–21) के अनुसार, बच्चों में कुपोषण की दर अब भी चिंताजनक है –
- 35.5% स्टंटेड (कम कद)
- 32.1% अंडरवेट
- 19.3% वेस्टेड (कम वजन)
गरीबी के प्रमुख कारण
भारत में गरीबी के कारण केवल आर्थिक नहीं, बल्कि सामाजिक, ऐतिहासिक और प्रशासनिक भी हैं:
- शिक्षा की कमी
- करोड़ों बच्चों को उचित शिक्षा नहीं मिल पाती।
- शिक्षा का स्तर निम्न और असमान है।
- बेरोजगारी
- श्रमिक वर्ग को स्थायी और सम्मानजनक रोजगार नहीं मिल पाता।
- बेरोजगारी दर 2024 में भी 6–8% के बीच बनी हुई है।
असमान संसाधन वितरण
- विकास शहरी केंद्रों तक सीमित है।
- ग्रामीण क्षेत्रों में मूलभूत सुविधाओं का अभाव है।
- भ्रष्टाचार और नीतिगत विफलताएँ
- योजनाओं में लीकेज, बिचौलियों का हस्तक्षेप।
- वास्तविक लाभार्थियों तक योजना का लाभ नहीं पहुँच पाता।
- जातिगत, लिंग और वर्ग आधारित भेदभाव
- दलित, आदिवासी और मुस्लिम समुदाय गरीबी से अधिक प्रभावित।
- महिलाओं की आर्थिक भागीदारी कम।
- सरकारी योजनाएँ: नाम बड़े, काम... ?
- मनरेगा: ग्रामीण बेरोजगारों को 100 दिन का रोजगार देने की योजना
- प्रधानमंत्री आवास योजना: गरीबों को पक्का मकान
- जन धन योजना: बैंकिंग सेवाओं तक पहुँच
- उज्ज्वला योजना: महिलाओं को मुफ्त गैस कनेक्शन
- आयुष्मान भारत: स्वास्थ्य बीमा योजना
- बहुत सी योजनाएं नीति के स्तर पर अच्छी हैं लेकिन जमीनी हकीकत में इनका असर सीमित है।
- लाभार्थियों की पहचान, आधार लिंकिंग, डिजिटल समस्याएँ, भ्रष्टाचार और राजनीति में फंसकर योजनाएँ कमजोर हो जाती हैं।
महामारी और गरीबी: दोहरी मार
COVID-19 महामारी ने गरीबी को नई गहराइयों तक पहुँचा दिया:
- लाखों प्रवासी मजदूरों को पैदल चलकर अपने गाँव लौटना पड़ा।
- असंगठित क्षेत्र में कार्यरत करोड़ों लोगों की आय बंद हो गई।
- बच्चों की शिक्षा पर बुरा असर पड़ा — डिजिटल डिवाइड ने हालात और बिगाड़ दिए।
- गरीबी की स्थिति में पहले से गरीब वर्ग और भी नीचे गिर गया।
विश्व बैंक के अनुसार, भारत में महामारी के कारण लगभग 5 करोड़ लोग दोबारा गरीबी में चले गए।
एक आलोचनात्मक दृष्टिकोण
भारत की गरीबी न केवल आर्थिक अक्षमता का परिणाम है, बल्कि यह एक नियोजन की असफलता है।
- हम स्मार्ट सिटी बना रहे हैं, लेकिन अभी भी हजारों गाँवों में बिजली-पानी-पक्की सड़क नहीं है।
- हम करोड़ों डॉलर के स्टार्टअप्स की बात करते हैं, लेकिन एक किसान को समय पर खाद नहीं मिलती।
- सरकारें गरीबी हटाने के दावे करती हैं, लेकिन हर चुनाव में “गरीब” ही सबसे बड़ा मुद्दा बना रहता है।
यानी गरीबी, सरकारों के लिए एक समस्या नहीं, बल्कि एक चुनावी उपकरण बन गई है।
समाधान:
शिक्षा का सुधार और पहुंच
तकनीकी और व्यावसायिक शिक्षा को बढ़ावा दिया जाए।
रोजगार सृजन और स्थानीय उद्योग
स्वरोजगार और स्टार्टअप्स के लिए आसान ऋण व्यवस्था।
स्वास्थ्य और पोषण पर विशेष ध्यान
योजनाओं की निगरानी और पारदर्शिता
न्यायसंगत नीति निर्धारण
नीति निर्धारण में गरीबों की भागीदारी हो, न कि केवल लाभ का अनुमान।
सरकारों की विफलताएँ: योजनाएँ हैं, लेकिन ज़मीनी बदलाव कहाँ है?
भारत में गरीबी कोई नई समस्या नहीं है। आज़ादी के 75 वर्षों के बाद भी अगर करोड़ों लोग बुनियादी जरूरतों से वंचित हैं, तो इसका मतलब यह है कि सरकारें अपने मूल उद्देश्य में असफल रही हैं। यह विफलताएँ कई स्तरों पर देखी जा सकती हैं:
योजनाओं की घोषणाएँ तो होती हैं, लेकिन क्रियान्वयन कमजोर
- हर सरकार चुनाव के समय गरीबी हटाने की बातें करती है, लेकिन चुनाव जीतने के बाद योजना केवल कागज़ पर रह जाती है।
- उदाहरण: मनरेगा जैसी योजनाओं में भुगतान की देरी, फर्जी नाम, और काम की अनुपलब्धता की शिकायतें आज भी हैं।
- नीति निर्धारण में गरीबों की वास्तविक भागीदारी नहीं
- ज्यादातर नीतियाँ ब्यूरोक्रेटिक कमरों में बनाई जाती हैं, जिनका गरीब से कोई सीधा संवाद नहीं होता।
- लाभार्थी क्या चाहता है, यह पूछने के बजाय उसे ऊपर से “दिया” जाता है।
- आंकड़ों के साथ खेल (Data Manipulation)
- गरीबी दर कम दिखाने के लिए संकीर्ण परिभाषाएँ अपनाई जाती हैं।
- ₹47/दिन कमाने वाला व्यक्ति गरीब नहीं माना जाता – क्या ये व्यावहारिक है?
- भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने में असफलता
- सरकारी योजनाओं में बिचौलियों, घूस, और भ्रष्टाचार की वजह से असली जरूरतमंद वंचित रह जाता है।
- Audit और RTI सिस्टम होने के बावजूद जवाबदेही कमजोर है।
- जनसंख्या नियंत्रण पर ठोस रणनीति का अभाव
- जनसंख्या नियंत्रण के बिना गरीबी पर लगाम लगाना कठिन है, लेकिन यह मुद्दा राजनीतिक रूप से संवेदनशील मानकर दरकिनार कर दिया जाता है।
- संसाधनों का असमान वितरण
- शहरी क्षेत्रों में स्मार्ट सिटी, एयरपोर्ट, मेट्रो जैसे बड़े प्रोजेक्ट्स को प्राथमिकता दी जाती है, जबकि ग्रामीण भारत आज भी गड्ढे वाली सड़कों और बिना डॉक्टर के अस्पतालों से जूझ रहा है।
सरकारें गरीबी हटाने की नीयत तो दिखाती हैं, लेकिन ज़मीन पर बदलाव की रफ्तार धीमी है। घोषणाओं और बजट आवंटनों से आगे जाकर, जब तक गरीब की ज़िंदगी में ठोस बदलाव नहीं आता, तब तक हर सरकार विफल ही मानी जाएगी – चाहे वो किसी भी दल की क्यों न हो।
भारत में गरीबी की स्थिति एक जटिल, गहरी और बहुस्तरीय समस्या है। इसे केवल योजनाओं या आंकड़ों से हल नहीं किया जा सकता। जब तक गरीबी को नीति निर्धारण का केंद्र बिंदु नहीं बनाया जाएगा, और जब तक लाभार्थी को सम्मान और भागीदारी नहीं दी जाएगी — तब तक "गरीबी हटाओ" केवल एक नारा ही रहेगा।
भारत को अगर सच्चे अर्थों में "विकसित राष्ट्र" बनना है, तो सबसे पहले उसे गरीब को केंद्र में लाना होगा, न कि केवल बजट भाषणों में शामिल करना होगा।
सचिन 'निडर'
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